वो जेलर... जो बच्चों की तरह मासूम था
जब हँसी के बादशाह ने अलविदा कहा - असरानी जी को श्रद्धांजलि
वो जेलर, जो हर सीन में हँसी बाँट देता था…
जिसकी आँखों में शरारत थी, लेकिन दिल में मासूमियत।
वही कलाकार, जिसने हमें सिखाया कि कॉमेडी सिर्फ़ हँसाने का नहीं, जीने का तरीका भी है।
Bollywood Untold की इस कहानी में, चलिए परदे के पीछे झाँकते हैं — उस इंसान तक, जो बच्चों की तरह मासूम था… और हँसी की तरह अमर।
अक्टूबर की शाम, जब दीवाली की रौनक़ अभी मद्धम भी नहीं हुई थी, भारतीय सिनेमा के आसमान से एक चमकता सितारा टूट गया। 20 अक्टूबर 2025 की दोपहर, मुंबई के जुहू स्थित आरोग्य निधि अस्पताल में 84 वर्षीय गोवर्धन असरानी ने अपनी आखिरी साँस ली। वो असरानी, जिनकी हँसी ने पाँच दशकों तक करोड़ों दिलों को गुदगुदाया, जिनके अभिनय ने भारतीय सिनेमा को एक नया रंग दिया, चुपचाप इस दुनिया से विदा हो गए।
जयपुर की धरती से निकला सितारा
1 जनवरी 1940 को जयपुर की धूप-छाँव में जन्मे गोवर्धन असरानी एक मध्यवर्गीय सिंधी परिवार की संतान थे। गुलाबी नगरी की गलियों में पले-बढ़े असरानी का बचपन साधारण था, लेकिन सपने असाधारण। सेंट ज़ेवियर्स स्कूल और फिर राजस्थान कॉलेज से शिक्षा पूरी करते हुए, उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो जयपुर में आवाज़ कलाकार के रूप में काम किया। वो आवाज़, जो बाद में 'अंग्रेजों के ज़माने के जेलर हैं' जैसे यादगार संवादों के ज़रिए अमर हो गई।
पारिवारिक कारपेट के व्यवसाय में उनका मन नहीं लगा। कला उन्हें पुकार रही थी, और 1962 में साहित्य कलाभाई ठक्कर के साथ अभिनय की शिक्षा लेकर उन्होंने अपने सफ़र की शुरुआत की। फिर 1964 में पुणे के प्रतिष्ठित फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया (FTII) में दाख़िला लिया, और यहीं से शुरू हुई एक ऐसी यात्रा जो भारतीय सिनेमा के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखी जाएगी।
संघर्ष के दिन - जब सफलता दूर थी
1966 में FTII से स्नातक होने के बाद भी असरानी के लिए बॉलीवुड के दरवाज़े आसानी से नहीं खुले। उस दौर में फिल्म इंस्टिट्यूट की डिग्री को कोई मान्यता नहीं थी। जब वो अपना सर्टिफिकेट लेकर निर्माताओं के पास जाते, तो उन्हें भगा दिया जाता - "अरे, अभिनय की कोई डिग्री होती है क्या? बड़े सितारे यहाँ ट्रेनिंग नहीं लेते, और तुम इतने ख़ास हो? भाग यहाँ से!"
निराश और हताश असरानी को FTII में ही प्रशिक्षक की नौकरी करनी पड़ी। छह साल तक, हर शुक्रवार शाम को वो पुणे से डेक्कन क्वीन ट्रेन में बैठकर मुंबई जाते, अभिनय के अवसर तलाशते। टिकट की कीमत थी छह रुपये छह आने। यही संघर्ष, यही जिजीविषा बाद में उनके अभिनय में झलकती रही।
चमत्कार तब हुआ जब तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंदिरा गाँधी FTII का दौरा किया। असरानी और उनके साथियों ने शिकायत की कि ट्रेनिंग के बावजूद उन्हें काम नहीं मिल रहा। इंदिरा जी ने मुंबई के निर्माताओं से कहा कि FTII के स्नातकों को काम दिया जाए। और तब जाकर असरानी के संघर्ष में रोशनी की एक किरण फूटी।
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गुरु से अभिनेता तक का सफ़र
FTII में पढ़ाते हुए असरानी की मुलाक़ात हुई एक युवा लड़की से - जया भादुड़ी, जो बाद में जया बच्चन बनीं। असरानी उनके अभिनय के गुरु थे।
1971 में जब ऋषिकेश मुखर्जी, जो FTII में संपादन के अतिथि व्याख्याता थे, गुलज़ार की सिफ़ारिश पर जया को खोजते हुए आए, तो असरानी ने ही उन्हें कैंटीन में चाय पीती जया से मिलवाया। उस समय जया के साथ अनिल धवन और डैनी डेन्ज़ोंग्पा भी थे। जब असरानी ने जया को बताया कि ऋषिदा उनसे मिलने आए हैं, तो उत्साह में जया के हाथ से चाय का कप छूट गया!
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लेकिन चतुर असरानी ने इस मौक़े को अपने लिए भी इस्तेमाल किया। जब ऋषिकेश मुखर्जी जया से बात कर रहे थे, असरानी गुलज़ार को परेशान करने लगे कि उनके लिए भी कोई भूमिका हो। गुलज़ार ने धीमे से कहा कि हाँ, एक रोल है, लेकिन ऋषिदा को मत बताना कि मैंने तुम्हें बता दिया!
यूँ हुआ 'गुड्डी' (1971) में असरानी का ब्रेकथ्रू। फिल्म में वो एक महत्वाकांक्षी युवक बने जो हीरो बनने का सपना देखता है लेकिन सिर्फ़ एक जूनियर आर्टिस्ट बनकर रह जाता है - बिल्कुल वैसा ही जैसा उनका अपना संघर्ष था। गुड्डी हिट हुई, और असरानी-जया दोनों रातोंरात चर्चित हो गए। असरानी ने आठ फ़िल्मों पर हस्ताक्षर किए, और पीछे मुड़कर नहीं देखा।
आज भी जया बच्चन जब असरानी से मिलतीं, तो उन्हें 'सर' कहकर संबोधित करतीं। और जब जया और अमिताभ बच्चन की शादी हुई, तो असरानी गुलज़ार, रमेश बहल और एक चचेरे भाई के साथ 'दुल्हन के भाई' में से एक थे। उस निजी समारोह में संजय गाँधी भी उपस्थित थे।
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'शोले' - जहाँ हास्य इतिहास बन गया
1975 - वो साल जिसने असरानी को अमर बना दिया। रमेश सिप्पी की महाकाव्य फ़िल्म 'शोले' में जेलर की भूमिका मिली। लेखक सलीम-जावेद ने उन्हें द्वितीय विश्व युद्ध पर एडोल्फ हिटलर की अनदेखी तस्वीरों वाली किताब दी। असरानी ने हिटलर की तस्वीरें ध्यान से देखीं, उनके भाषणों को सुना, उनकी आवाज़ की तान-मरोड़ और चाल को समझा।
हिटलर जैसी वेशभूषा पहनकर, वो संवाद बोला - "हम अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर हैं"। और वाक्य के अंत में 'हा हा' - यह जैक लेमन की फ़िल्म 'द ग्रेट रेस' (1965) से प्रेरित था।
ये छोटी सी भूमिका, केवल 10 मिनट की स्क्रीन टाइम, लेकिन इसका प्रभाव ऐसा कि आज भी 'शोले' का जेलर भारतीय सिनेमा के शीर्ष 5 सबसे प्रतिष्ठित किरदारों में गिना जाता है। 204 मिनट की फ़िल्म में 4.9% स्क्रीन टाइम, लेकिन असीम प्रभाव - यही थी असरानी की प्रतिभा की ताक़त।
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हास्य के बादशाह, संवेदनशील अभिनेता
असरानी केवल कॉमेडियन नहीं थे। 'चुपके चुपके' (1975) में उनका सूक्ष्म हास्य, 'अभिमान' (1973) और 'नमक हराम' (1973) में चरित्र अभिनय, 'कोशिश' (1972) में संवेदनशील भूमिका - हर रंग में वो सिद्धहस्त थे।
ऋषिकेश मुखर्जी और गुलज़ार - दोनों दिग्गज़ निर्देशकों के प्रिय बन गए। 'बावर्ची' (1972), 'रफ़ू चक्कर' (1975), 'छोटी सी बात' (1976) - हर फ़िल्म में उनका अभिनय ताज़ा हवा की तरह था।
1973 में 'आज की ताज़ा खबर' और 1977 में 'बालिका बधू' के लिए उन्होंने फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता का पुरस्कार जीता। 70 और 80 के दशक में राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन - हर बड़े सितारे के साथ काम किया, और हर बार अपनी छाप छोड़ी।
निर्देशक भी, कलाकार भी
असरानी ने केवल अभिनय ही नहीं, निर्देशन भी किया। 1977 में 'चला मुरारी हीरो बनने' लिखी, निर्देशित की और मुख्य भूमिका भी निभाई। 'सलाम मेमसाब' (1979) सहित कुल छह फ़िल्मों का निर्देशन किया। गुजराती और राजस्थानी सिनेमा में भी सक्रिय रहे।
उनका बहुआयामी व्यक्तित्व यहीं नहीं रुका - 1977 में 'आलाप' फ़िल्म में उन्होंने दो गाने गाए, और 1978 में किशोर कुमार के साथ युगल गीत "मन्नू भाई मोटर चले" गाया।
नए युग में भी प्रासंगिक
जब 90 के दशक में नई पीढ़ी के हास्य कलाकार आए, असरानी फिर भी अप्रासंगिक नहीं हुए। 'हेरा फेरी' (2000), 'धमाल' (2007), 'गरम मसाला' (2005), 'बोल बच्चन' (2012) - हर दौर में वो मौजूद रहे।
2010 के बाद भी 40 से अधिक फ़िल्मों में काम किया। हाल ही में काजोल के साथ 'द ट्रायल सीज़न 2' में वकील की भूमिका निभाई।
अक्षय कुमार के साथ 'भूत बंगला' और 'हैवान' की शूटिंग पूरी की थी, जो अभी रिलीज़ नहीं हुई हैं। अक्षय ने उनकी मृत्यु पर लिखा, "एक हफ़्ते पहले ही 'हैवान' की शूटिंग पर हमने सबसे गर्मजोशी भरा आलिंगन किया था। बहुत प्यारे इंसान थे... सबसे शानदार कॉमिक टाइमिंग थी।"
आखिरी साँस तक फ़नकार
20 अक्टूबर को दोपहर 3 बजे, फेफड़ों में पानी भरने और सीने के संक्रमण से जूझते हुए असरानी ने अंतिम साँस ली। अपनी पत्नी मंजू से कहा था कि उनके जाने को कोई इवेंट न बनाया जाए। शांति से, बिना शोर-शराबे के चले गए - वैसे ही जैसे उनकी ज़िंदगी थी, विनम्र और सरल।
दीवाली की शुभकामनाएँ देते हुए उन्होंने अपनी आखिरी पोस्ट डाली थी। और उसके कुछ घंटों बाद, वो चले गए। सांताक्रूज़ श्मशान घाट में परिवार और करीबी दोस्तों की उपस्थिति में उनका अंतिम संस्कार हुआ।
जो रह गए, वो यादें हैं
350 से अधिक फ़िल्में, पाँच दशक का करियर, दो फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार, और करोड़ों दिलों में बसा हुआ एक चेहरा - यही है असरानी जी की विरासत।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लिखा, "श्री गोवर्धन असरानी जी के निधन से गहरा दुःख हुआ। एक प्रतिभाशाली मनोरंजनकर्ता और सही मायने में बहुमुखी कलाकार, उन्होंने पीढ़ियों के दर्शकों का मनोरंजन किया। उनका भारतीय सिनेमा में योगदान हमेशा संजोया जाएगा।"
| (Source: https://x.com/narendramodi/status) |
असरानी केवल हँसाते नहीं थे, वो जीवन को हल्का बनाते थे। उनकी आँखों में चमक, चेहरे पर भाव, और अदा में वो नाज़ुकता - ये सब मिलकर एक अद्भुत कलाकार बनाते थे।
आख़िरी बात
जयपुर की गलियों से निकलकर बॉलीवुड के आसमान पर छा जाने वाला वो लड़का, FTII में संघर्ष करता शिक्षक, जया बच्चन का गुरु, 'शोले' का अमर जेलर - असरानी जी ने हर भूमिका में अपनी छाप छोड़ी।
आज जब वो हमारे बीच नहीं हैं, तो उनकी यादें हैं, उनकी फ़िल्में हैं, और है वो हँसी जो उन्होंने हमें दी।
"हम अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर हैं" - ये संवाद अब भी गूँजता है, और हमेशा गूँजता रहेगा।
असरानी जी, आपने हमें हँसाया, रुलाया, और ज़िंदगी को प्यार करना सिखाया। आप भले ही चले गए, लेकिन आपकी हँसी सदा अमर रहेगी।
ओम शांति।
©Avinash Tripathi -Official Website Link, IMDb , Animesh Films




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