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The Indian Filmmaker par excellence- Bimal Roy

 

 कैमरे से जिंदगी लिखता एक जादूगर

बारिशो के मौसम ,अक्सर तपती ज़मीन के हृदयस्थल को गीला करके , उनमे ज़िन्दगी रोपने का काम करते है. ये मौसम , हवाओ को नम करते है और बेहद कोमल और लताफत भरे लोगो की दिल की मिट्टी को भी ज़्यादा मुलायम कर देते हैं.

 इन्ही भीगे मौसम में ढाका में १२ जुलाई की मध्यम बारिश में , एक बच्चा जन्म लेता है. बंगाल की साहित्यिक , अभिजात्य ब्राह्मण ज़मींदार परिवार का ये बच्चा बचपन से ही अपनी नज़रो को बेहद पैनी करना सीख जाता है. बड़े होने पर दुनिया को बेहद संवेदनशील , औरतो के हक़ हक़ूक़ को शाइस्तगी से पेश करती फिल्म, उपहार देने वाला ये बच्चा, भारतीय सिनेमा का सबसे बड़ा  निर्देशकों  में से एक बनता है. दुनिया इस शख्स को बिमल रॉय ,प्यार और अहतराम से बिमल दा के नाम से जानती है. 

Bimal Roy


(Source: https://bollywoodirect.medium.com)



 बंगाल अपने प्रकृति के अनुरूप , सामाजिक जागरूकता और चिंतन से देश को प्रभावित कर रहा था।  इसी प्रदेश के कोलकाता शहर में बिमल रॉय , अपने आँखों में जलते ख्वाब और सोच को कैमरे के ज़रिये ,दुनिया तक पहुंचाने को बेचैन हो रहे थे. ३० का दशक आधा हो चूका था और ज़िन्दगी से हारे हुए एक किरदार को परदे पर लाने की कोशिश चल रही थी. पी  सी  बरुआ की 'देवदास ' में बिमल रॉय ने सिनेमा को करीब से जाने की कोशिश की. पब्लिसिटी मैनेजर के रूप में जुड़े बिमल रॉय , सिनेमा के हर फ्रेम को अपने ख़ामोशी से अपने  अंदर तह करके रखते जा रहे थे।  


 

Bimal Roy
(Source: Film P C Barua "Devdas" )


कुछ सालो में बिमल रॉय ने अपने खयालो, ख्वाबो की हर इबारत को कैमरे की नज़र से देखना शुरू कर दिया. १९४४ में 'उडाएर पाथे " ने बिमल रॉय को कैमरे के पीछे खड़े होकर , अपनी कहानी को सजाने का मौका दे दिया. रबिन्द्र नाथ टैगोर की इसी नाम की कविता में , बिमल दा ने अपने कल्पनाशीलता के खूबसूरत, संवेदनशील चित्र टांक दिए।  इस फिल्म की एक और बड़ी खासियत ,इसका गीत   ,जन  गण मन ' रहा जिसको आर सी बोराल ने अपनी धुन में सजाया था.

अपनी पहली ही फिल्म में क्लास स्ट्रगल , मजदूरों  की समस्या , और एक उभरते नॉवेलिस्ट के कार्य का हड़पने की प्रवित्ति पर तीखी रौशनी डाली है. इस कहानी के फलक को और बड़ा करते , बिमल रॉय ने हमराही ' नाम से हिंदी भाषा में  फिल्म बनायीं। कैमरे से दृश्य रचते बिमल रॉय , यथार्थ के चित्रकार की तरह , समय और हालात को रील पर दर्ज़  कर रहे थे.

एक ही फिल्म को दो अलग अलग भाषाओ में रचते , बिमल रॉय , बड़े सामाजिक मुद्दे, मानवीय संवेदना को ठहर कर चित्रित करते विजुअल  पेंटर की तरह उभर रहे थे. न्यू  थिएटर्स  कोलकाता के साथ काम करते करते ,बिमल रॉय को कलकत्ता का आसमान छोटा नज़र आने लगा. उनकी कहानियो के आसमान इतने व्यापक थे कि  उसे बड़ा फलक मिलना मुन्तज़िर था.

आज़ादी के बाद , देश और शहर अपनी शक्ल और बुनियाद बदल रहा था. बिमल  बॉम्बे में अपनी सोच को कैमरे के ठीक आगे रखना शुरू किया. उनकी इस सोच के दोनों छोर, उनके कोलकाता के पुराने साथी , सलिल चौधरी और हृषिकेश मुख़र्जी ख़ूबसूरती से थाम लेते है. कोलकाता की ज़हीन सोच , इटैलियन  निओ  रिअलिस्टिक फिल्मो का प्रभाव , विशेष रूप से विट्टोरिओ दी सिका की ' बाइस्किल  थीफ ' ने  बिमल रॉय के ज़ेहन की हर परत पर अपनी उंगलिया गड़ा  दी थी.

Bimal Roy film
( source - amazon.com )

                                                  

हालात, औरतो के संघर्ष, मजदूरों की पीड़ा बिमल रॉय के कैमरे के लेंस के आसपास मंडराते रहते। 

रबिन्द्र नाथ टैगोर की एक कविता ' दुइ बीघा जोमी ' पढ़कर भावुक हो गए  बिमल रॉय को एक दिन उनके दोस्त हृषिकेश मुख़र्जी ने इसी विषय से सम्बंधित एक कहानी सुनाई. सलिल चौधरी की एक बंगाली फिल्म के लिए लिखी इस कहानी को सुनते ही , आम आदमी के संघर्ष में अपनी फिल्म देखते बिमल रॉय का दिल, दर्द से सुलग  उठा।  बिमल रॉय ने फ़ौरन कहानी के मुख्य किरदार रिक्शावाला के  मजबूत इरादों पर  अपने कैमरे की आंख रख दी.  दूसरे हमनवा हृषिकेश मुख़र्जी ने कहानी को स्क्रीनप्ले में बदलने का जिम्मा उठा लिया।  

 अब वो फिल्म बनने की शक्ल ले रही थी जिसे भारत के सिनेमा को बदलने का बड़ा श्रेय जाता है.  १९५२ में आयी ' दो बीघा ज़मीन '    ने एक ऐसी फिल्म को दुनिया के सामने पेश किया जिसने भारतीय फिल्मकार की पचास के दशक के फ्यूडल सिस्टम और गरीब किसान के क़र्ज़ में फंसने और उससे छूटने की दास्ताँ को अमर कर दिया.  शम्भू ( बलराज साहनी ) एक गरीब किसान होता है जो अपनी छोटी से परिवार के साथ पसीने की तिज़ारत करता है.  गाँव का लालची साहूकार , उसकी ज़मीन पर अपने आँखे गड़ा  देता है. थोड़े से क़र्ज़ के बदले अपनी ज़मीन , जो शम्भू के लिए मिटटी का टुकड़ा नहीं, उसकी माँ  है , देने से इंकार कर देता है. अदालत ३ महीने में शम्भू को इतना पैसा देने को कहती जो गरीब किसान की पसीने से कभी संभव नहीं हो पाता। 

 शम्भू अपनी पत्नी पारो ( निरुपा रॉय ) और बच्चो को छोड़कर कलकत्ता में रिक्शा के  पैंडल पर अपनी ज़िद रख देता है. जमींदार और साहूकार सिस्टम , किसान के दर्द , ज़मीन से प्यार, गरीबी में भी प्यार और औरत का सम्मान जैसे बहुत से अलग अलग तार को एक पैरहन में पिरोते बिमल रॉय ने इस फिल्म से बिमल दा  बनने का सफर तय करना शुरू   कर दिया.इस फिल्म ने पहला  फिल्मफेयर के साथ कांस में बेस्ट फिल्म का अवार्ड जीता. ये  पहली फिल्म है जिसमे मीना  कुमारी ने शायद पहली बार एक अतिथि भूमिका के लिए हामी भरी थी. 

 

Bimal Roy film do bigha zamin
(Source: Film "Do Bigha Zamin")

 किसान , क़र्ज़ और प्यार की महीन बुनावट को कहानी की रूह में टांकते बिमल रॉय ने " परिनिता  " में मीना  कुमारी और अशोक कुमार को अपने अभिनय आकाश को बड़ा बनाने का मौका दिया. अनाथ  ललिता ( मीना कुमारी ) अपने चाचा के क़र्ज़ में डूबने का खामियाज़ा भुगतती  है और पड़ोस में रहने वाले शेखर  (अशोक कुमार ) ने ललिता में अपने जीवन साथी का सांझा ख्वाब देख लिया होता है. क़र्ज़ , रिश्तो में ग़लतफ़हमी , और अमीर तीसरे शख्स की आमद ने इस कहानी को बेहद परतदार बना दिया. हर दृश्य में मोहब्बत और सामाजिक रीति को हर कोने को तराशते बिमल रॉय एक  अलग दुनिया में ले जाते है. कहानियो में ज़िन्दगी भरते बिमल जल्दी ही  "सुजाता " तक पहुंच जाते है जो महिला उत्थान का बिना बोले जयघोष करती एक ऐसी फिल्म बन जाती है जो हर दृश्य में आत्मसम्मान से भरी औरत का खूबसूरत  तसव्वुर पेश करती है. 

 

Bimal Roy film Sujata
 (Source: Film "Sujata")


ये फिल्म भारत की पुरातन परंपरा और सामाजिक रूढ़ि को तोड़ती एक ऐसी लकीर खींच देती है जिसे सिनेमा में इससे बेहतर दिखाना मुमकिन नहीं दिख पाता।  सुजाता ( नूतन ) एक अछूत अनाथ कन्या है जिसे एक ब्राह्मण परिवार पालता है. घर की मालकिन कभी भी इस लड़की को अपने घर का हिस्सा नहीं मानती और वो अछूत है ,ये ज़ेहन का एक कोना हमेशा जगह घेरे रहता. ब्राह्मण परिवार का बेटा  अधीर ( सुनील दत्त ) के दिल की सबसे कोमल रग  में , सुजाता पुरज़ोर तरीके से बहने लगती है. ब्राह्मण और अछूत लड़की के इस प्रेम के बहाने , बिमल दा  ने हज़ारो साल की कुछ सामाजिक कुरीतियों में मुलायम लहज़े में इतना ज़ोर से प्रहार किया कि  सामाजिक रीतियों की चूले हिल गयी.

जिस फिल्म ने आपकी बुनियादी तरबीयत के दिनों में आपके दिल पर गहरा निशाँ छोड़ा हो।  देवदास वही फिल्म थी जिसने बिमल रॉय को  शुरुआती दिनों में फिल्म का ककहरा सीखने का मौका दिया था. निर्देशक बनने के बाद से देवदास का किरदार बिमल रॉय के उंगलियों में फंस गया था। 

 

 

Bimal Roy Devdas
( source - Devdas poster )
                                                        

 

 इस फिल्म में बिमल रॉय ने प्यार, पराजय , टूटन , अभिमान , अभिजात्य वर्ग,  वैश्या का भी सम्मान, प्यार के प्रति समर्पण को ऐसा ढाला  कि  हर दृश्य अपने आने वाले वक़्त का रिफरेन्स पॉइंट बन गया. बंगाल के फ्यूडल यसस्टम की महीन परतो को उद्देश्य ये फिल्म प्यार के मुलम्मे के पीछे ट्रांसपेरेंट होती है कि  समाज की नीली नसे , गोरी स्किन की परत के नीचे साफ़ दिखाई देती है. दिलीप कुमार ने टूटन और हार का ऐसा ताना बाना बना की हर प्रेमी, प्यार में जीतना नहीं , देवदास की तरह हारना चाहने लगा. सामाजिक फिल्मो से प्रेम की तहो में झांकते बिमल रॉय ने अब मधुमती के ज़रिये दूसरे जन्म में झांकना भी सीख लिया. 

 

Bimal Roy film Madhumati
(Source:Film "Madhumati")


 देवदास से दिलीप कुमार, बिमल दा  के किरदार को अपने जिस्म और रूह देने का हुनर सीख चुके थे. इस फिल्म में भी दिलीप कुमार और वैजयंतीमाला ने अपने इश्क़ की तिश्नगी को दूसरे जन्म तक बुझाने का शानदार काम किया.  बंदिनी ,परख जैसी कई फिल्मो से सिनेमा का सेट पैराडाइम को तोड़ते बिमल रॉय ने भारत का सबसे प्रबुद्ध फिल्मकार होने का ख़िताब हासिल कर लिया.

 

©अविनाश त्रिपाठी

 

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