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Censorship - creative liberty versus social responsibility

 

 OTT content : Headache for Censor Board

 

सिनेमा भारतीय समाज के अन्तःस्थल में धड़कता है।  इसकी महत्ता , प्रभाव ,दीर्घकारी असर से इंकार नहीं किया जा सकता है।  सिनेमा अपने उद्भव और विकास यात्रा में परस्पर समाज का सहयात्री बन कर उभरा है और कई बार समाज को ख़ास दिशा में सूचित , विषय प्रवर्तन के साथ समाज को परिष्कृत भी करता है. इन सभी विशेषताओं के साथ फिल्म अपने फ्रीडम ऑफ़ स्पीच और फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन का सबसे बेहतर टूल है। 

 

 (Source: https://www.cbfcindia.gov.in)

 

यही से कथन की आज़ादी और सामाजिक ज़िम्मेदारी की महीन रेखा कई बार धूमिल हो जाती है और कई बार कतिपय लोगो द्वारा इसका दुरोप्योग भी किया  जाता है।  भारत में सिनेमा को भी आर्टिकल १९ ( A ) के तहत अपनी बात / कथन को रचनात्मकता के साथ कहने की आज़ादी है।    सिनेमा अपने मूल में मनोरंजन को रखते हुए कई सामाजिक मुद्दे, समस्या , घटना , ऐतिहासिकता और व्यक्ति विशेष के जीवन को रोचकता के साथ प्रस्तुत करता है. इस प्रक्रिया में फिल्म मेकर अक्सर रचनात्मक आज़ादी यानी क्रिएटिव लिबर्टी लेते है जो सिनेमा के परदे पर कहानी रचने के लिए आवश्यक भी है. इसी क्रिएटिव लिबर्टी में कई बार सच का चूकना , अर्धसत्य , तथ्यों में आवश्यक और अनावश्यक दोनों तरह से छेड़छाड़ होती है. 

सेंसर बोर्ड की आवश्यकता - भारत विश्व का  सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है. भारतीय समाज की संरचना और गठन में विभीन जातीय, धर्म , भाषाएँ , बोलिया और इन सबकी अपनी मान्यता और रीति रिवाज़ है. जहाँ ये सब तत्व किसी लोकतंत्र को विविध और बेहद खूबसूरत बनाते है वही विभिन्न  मान्यता , और उसके फॉलोवर , रचनात्मक अभिव्यक्ति में अक्सर भावुकता का शिकार हो जाते है. धार्मिक मान्यता , स्व गौरव जैसे संवेदनशील पहलु पर किसी न किसी समुदाय के ठेस लगने की संभावना हमेशा बनी रहती है।  ऐसे में किसी सरकारी संगठन की आवश्यकता होती है जो रचनात्मकता की आज़ादी  के साथ , ये भी देख सके की सिनेमा का सार्वजनिक प्रदर्शन हो सकता है या नहीं. फिल्म , किसी वर्ग विशेष , धर्म विशेष, भारत की विदेशी नीति और आपसी सम्बन्ध के साथ कोई जाने अनजाने अन्याय तो नहीं कर रही है। 

प्रकाशित दूसरे माध्यमों जैसे अखबार, मैगज़ीन पर कोई सेंसरशिप नहीं है लेकिन सिनेमा अपने ऑडियो वीडियो विन्यास और जबरदस्त प्रभाव के कारण बेहद संवेदनशील रहा है।  सिनेमा की इसी ताक़त और प्रभाव को देखते हुए सेंसरशिप का प्रावधान किया गया जिससे फिल्म सार्वजनिक प्रदर्शन के पहले इस वैधानिक संस्था से पास होकर आये। 

वैसे तो भारत में पहली फिल्म ' राजा हरिश्चंद्र थी  जो १९१३ में प्रदर्शित हुई थी लेकिन सेंसर बोर्ड की शुरुआत १९२० के आस पास हुई. उस समय बॉम्बे के अलावा , मद्रास , कलकत्ता और लाहौर में इसके क्षेत्रीय कार्यालय स्थापित किये गए। सेंसर बोर्ड स्थापना के  फ़ौरन बाद  आयी फिल्म 'भक्त विदुर ' पहली फिल्म बानी जिसको सेंसर बोर्ड ने बैन कर दिया।  'भक्त विदुर पर उस समय की ब्रिटिश हुकूमत ने इसलिए बैन लगाया था क्योकि उनके अनुसार विदुर को चरित्र को गांधी जी जैसा दिखाया था. यही नहीं फिल्म में कई दृश्य राजनीतिक थे और उस समय के भारत को सन्दर्भ की तरह पेश किया था. 

 

 (Source: Film Bhakta Vidur poster)

ब्रिटिश सरकार को दर था की फिल्म देखने के बाद भारतीय जनता में  प्रति विरोध बढ़ेगा और जनता बगावत कर सकती है।  आज़ादी के कुछ समय बाद केंद्रीय सेंसर बोर्ड की आवश्यकता महसूस हुई जो भारत की समस्त भाषा की फिल्म को सार्वजनिक प्रदर्शन के पहले उनमे चित्रित कंटेंट और उसके अनुसार सर्टिफिकेट जारी कर सके. आधुनिक  सेंसर बोर्ड और उसके  क्रियाकलाप, नियम ये सिनेमाग्राफ एक्ट १९५२ द्वारा संचालित होना शुरू हुए और सेंसर बोर्ड  पहले अध्यक्ष  सी एस  अग्रवाल हुए।   उसी समय से सेंसर बोर्ड कंटेंट को सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए फिल्म को प्रमाणपत्र दे देता    . अथवा आवश्यकता अनुसार फिल्म में काँट  छांट के आदेश निर्माता / निर्देशक को दिए जाते है। ये प्रमाणपत्र फिल्म में U, U/A , A और  S के रूप में होते है. हालांकि एक वैधानिक संस्था होने के बावजूद सालो से फिल्म निर्माता और सेंसर बोर्ड में बीच बीच में मतभेद होते रहे है और कई फिल्म को सेंसर बोर्ड ने अलग अलग कारणों से प्रतिबंधित भी किया है।  'बैंडिट क़्वीन, फायर , पांच , ब्लैक फ्राइडे, पर्जन्या , आंधी वो प्रमुख फिल्म रही जिसे सेंसर बोर्ड ने प्रतिबंधित किया और इसमें से कई फिल्म , न्यायालय  की मदद से सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित हुई.

पिछले कुछ सालो में सेंसर बोर्ड और निर्माता का विवाद बढ़ा है और कई बार सेंसर बोर्ड जैसे संस्था सवालो के घेरे में भी रही है।  'उड़ता पंजाब और पद्मावती ने विगत दिनों में इस विवाद को और हवा दी।  पंजाब राज्य में फैली हुई नशे की अवस्था पर बनायीं गयी फिल्म ;उड़ता पंजाब ' को संसार बोर्ड ने प्रमाणपत्र देने से मन कर दिया, साथ ही उसमे १३ स्थान पर कट  लगाने का सुझाव दिया.

 

 निर्माता अनुराग कश्यप कट  के लिए तैयार नहीं थे , फलस्वरूप वो न्यायलय में अपनी फिल्म को ले गए.  सर्वोच्च न्यायाय ने सेंसर बोर्ड को फटकारते हुए उसको महज सर्टिफिकेट प्रदान करने की संस्था बताया और फिल्म को प्रदर्शित करने का आदेश दिया। 

इसी तरह से पिछले कुछ दिनों से 'पद्मावती ' पर जाति  विशेष और समाज के कुछ वर्ग ने इतिहास को परिवर्तित अथवा उसमे छेड़ छाड़ का आरोप  लगाते  हुए उसके सार्वजनिक प्रदर्शन पर रोक लगाने के लिए सेंसर बोर्ड से अपील की थी. फिल्म सेंसर बोर्ड द्वारा कुछ सुझावों के बाद जब प्रदर्शित हुई तो सामाजिक संगठन ने फिल्म को प्रतिबंधित करने का राजनीतिक और बल पूर्वक , दोनों प्रयास किया।  उपजी परिस्थिति  पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और विभिन्न राज्य सरकारों को फटकार लगते हुए फिल्म को प्रदर्शित कराने में सहयोग का आदेश किया.

 

पिछले कुछ सालो से ओ  टी  टी और विभिन्न वेब स्ट्रीमिंग प्लेटफार्म ने सरकार और कुछ हद तक समाज के एक हिस्से को भी बेहद परेशानी में दाल दिया है. सिनेमा अब सार्वजनिक प्रदर्शन से सिकुड़कर , हमारे हथेलियों में सिमट गया. अब फिल्म और फिल्म जैसे बड़े कैनवास पर शूट की गयी वेब सीरीज हमारे घर के कमरों का अभिन्न हिस्सा होने लगी।  खासतौर से बड़े शहरो में वेब स्ट्रीमिंग का ज़बरदस्त चलन हुआ. इस नयी क्रांति का फायदा , निर्माता निर्देशक को अपनी क्रिएटिव लिबर्टी के रूप में मिला लेकिन साथ ही साथ, इस लिबर्टी के नाम पर ज़्यादातर निर्देशक , कहानी में घोर अश्लीलता और गालियों की बौछार प्रस्तुत करने लगे. मिर्जापुर कहानी और नरेटिव के मामले में निश्चित ही रूप से प्रबल दिखाई देती है लेकिन कई जगह गालियों की बौछार अनावश्यक भी प्रतीत होती है । सैक्रेड गेम्स में भी इसी प्रकार कई जगह अंडरवर्ल्ड के किरदार के बहाने बहुतायत गालियों का इस्तेमाल किया गया। यही नहीं बल्कि म्यूजिक जैसे शालीन और शास्त्रीय सब्जेक्ट बैंडिट बंदिश में भी कई जगह भाषा की विद्रूपता किस प्रकार दिखाई दी जैसे चलती हुई किसी सड़क पर अचानक स्पीड ब्रेकर आ जाए।


 किरदार को सच्चाई के ज़्यादा करीब लाने के प्रयास का दावा करते कई फिल्मकार, हर सीमा लांघते भी चले गए. इंटरनेट पर किसी तरह का कोई सेंसर या बंदिश न होने के कारण कई बार ये सरकार के लिए मुश्किल का कारण बनता चला गया. पिछले कुछ महीनो से सरकार खुद इस बारे में विवहारशील है की वेब स्ट्रीमिंग को भी सेंसरशिप के अंतर्गत लाया जाय. समाज के कुछ हिस्से भी दिखाए गए दृश्य और अभद्र भाषा के खिलाफ खड़े हुए नज़र आ रहे है. 

कुल मिलकर सेंसर बोर्ड का कार्य, कुछ एक अपवादों को छोड़कर बेहतर रहा है .  सख्त कानून , देश की विविध संस्कृति, धार्मिक मामलो में संवेदनशीलता और विचारो की आज़ादी के बीच अक्सर सेंसर बोर्ड  न्याय करना और दोनों पक्षों को संतुष्ट करना मुश्किल होता है फिर बड़ी संख्या में  प्रमाणपत्र देना और उनके प्रदर्शन को सुरक्षित रखने में सेंसर बोर्ड  बहुधा सफल रहा है।  

©अविनाश त्रिपाठी 

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